भारत के प्रमुख किसान आन्दोलन
- वर्षों से चली आ रही ब्रिटिश सरकार की भू-राजस्व नीति, मनमाफिक लगान और किसानों के प्रति सौतेलापन व्यवहार ने भारतीय किसानों के हृदय में प्रतिशोध की धधकती ज्वाला उत्पन्न की। परिणाम स्वरूप देश के कई हिस्सों में कृषक आंदोलन हुए जिन्होंने आधुनिक भारत के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। जमींदारों की अनैतिक नीति और ब्रिटिश सरकार की उदासीनता कृषक विद्रोह का प्रमुख कारण था। समय समय पर किसानों ने अपने हक के लिए कई सारी लड़ाइयां लड़ी। जो निम्नलिखित हैं :-
नील विद्रोह (1859-60) :
- प्रथम कृषक विद्रोह नील विद्रोह था। नील की खेती से सम्बंधित होने के कारण इसे नील आंदोलन भी कहा गया। इस आंदोलन की शुरुवात 1859 में बंगाल के नदिया जिले के गोविंदपुर गांव से हुई। जहाँ दिगम्बर विश्वास और विष्णु विस्वास भाइयों ने आंदोलन का सफल नेतृत्व किया।
- विद्रोह का मूल कारण जबरदस्ती अंग्रेजों द्वारा उन कृषकों से नील की खेती करवाना था, जो नील की खेती करना नहीं चाहते थे। नील की खेती नहीं करने का कारण उपजाऊ जमीन का अनुपजाऊ हो जाना था। एकबार नील की खेती करने के बाद भूमि अन्य फसल उगाने के काबिल नहीं बचती थी। दुगुने मेहनत और भूमि की घटती उर्वरता ने नील आंदोलन की नींव रखी। नील की खेती से किसानों को कम, नील उत्पादकों को ज्यादा फायदा था।
- शोषण की अत्यधिक सीमा ने किसानों को क्रांति करने पर मजबूर कर दिया। फलस्वरूप किसानों ने लगान चुकाना बंद कर दिया। किसानों की एकता, अनुशासन और संगठन ने ब्रिटिश सरकार को घुटने पर ला दिया। 1860 में ब्रिटीश अधिकारी सीटोन कार की अध्यक्षता में एक नील आयोग का गठन किया गया। रिपोर्ट ने किसानों पर हो रहे शोषण को स्वीकार किया और भविष्य में किसानों से जबरदस्ती नील की खेती न करवाने की अधिघोषणा जारी की।
- कई सारे प्रमुख समाचार पत्रों ने इस ख़बर की प्रमुखता से प्रकाशन किया। कहीं नील दर्पण नाटक में दीन बन्धु ने किसानों की दशा और दुर्दशा पर चर्चा की। तो कहीं हिन्दू पैट्रियाट के सम्पादक हरिश्चंद्र मुखर्जी ने कृषक आन्दोलन को मूर्त रूप दिया। पढ़े लिखे बुद्धिजीवी वर्ग से लेकर ईसाई मिशनरी भी कृषक वर्ग के पक्ष में साथ साथ नजर आते मिले। अंततः यह आंदोलन अत्यधिक सफल रहा जिसने बाकी आने वाले किसान आंदोलनों को हवा दी।
पाबना विद्रोह (1873-76)
- जमींदारों की बढ़ती लगान की दरें इस विद्रोह का मुख्य कारण था। बंगाल के पाबना जिले में इस विद्रोह का मुख्य केंद्र था। किसान जितना फसल उत्पादन नहीं करते थे उससे ज्यादा जमींदार उनसे उगाही करते थे। जमींदारों की शोषण की पराकाष्ठा ने पाबना विद्रोह की आग को चिंगारी दी।
- ईसान चन्द्र राय, केशव चन्द्र राय, तथा शंभूपाल जैसे संचालकों ने इस विद्रोह का नेतृत्व किया। किसानों की मांग थी कि हम सीधे इंग्लेंड की रानी की रैयत बने रहना चाहते हैं। किसी जमींदार जैसे बिचौलियों के बीच में रहकर पिसना नहीं चाहते हैं। कुल मिलाकर पाबना के रैयतों ने ब्रिटिश शासन का विरोध नहीं किया बल्कि ब्रिटिश हुकूमत से सीधा हिसाब किताब जोड़ने की कोशिश की। कालांतर में उन्होंने लगान वृद्धि के विरुद्ध आवाज बुलंद की और लगान देना बंद कर दिया। फलतः ब्रिटिश सरकार ने 1885 में बंगाल काश्तकारी कानून बनाकर रैयतों का समर्थन किया।
दक्कन विद्रोह (1875) –
- महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्र जैसे कि पुणे एवं अहमदनगर में रैयतवाड़ी व्यवस्था प्रचलित थी। रैयतवाड़ी व्यवस्था ने किसानों और बिचौलियों के बीच का द्वंद खत्म कर दिया। अब सीधे किसानों से ही लगान वसूल किया जाने लगा जिससे किसान अब बढ़कर खेती करने लगे।
- इस आंदोलन में जमींदारों की जगह साहूकारों ने ने विद्रोह की भावना भड़काई। उन लोगों ने किसानों को अत्यधिक सूद और मनमाफ़िक ब्याज पर किसानों को ऋण देने शुरु किया। ऋण न चुका पाने की स्थिति में ये साहूकार किसानों की जमीन अधिग्रहण करने लगे। न्यायालय के माध्यम से ये साहूकार इन किसानों की जमीन को धीरे धीरे करके हथियाने लगे। नतीजन किसानों में व्यापक रोष उत्पन्न हुआ और उन लोगों ने साहूकारों के घर में आग लगाना शुरू किए। सारे अग्रीमेंट के पेपर फाड़ दिए और कुल लेन देन सम्बन्धी दस्तावेज को आग के हवाले कर दिये।
परिणाम यह हुआ कि सरकार चिंतित हो उठी और 1879 में दक्कन कृषक राहत अधिनियम को पारित करना पड़ा। इस अधिनियम ने किसानों को साहूकारों अथवा सूदखोरों से संरक्षण प्रदान कर उनका पुनः समर्थन किया।
मोपला विद्रोह
- मोपला विद्रोह केरल में हुआ था। गरीबी और जमींदारी की बीच की यह लड़ाई कब हिन्दू और मुसलमान की साम्प्रदायिक घटनाओं का केंद्र का हो गया, पता नहीं चला। अंग्रेजों की फुट डालो नीति ने अमीर जमींदारों और गरीब मोपलाओं के बीच धर्म की राजनीति कार्ड चल दी। मोपला मुख्यतः गरीब कृषक मुसलमान थे और जमींदार हिन्दू थे। जिन्होंने पुलिस और पैसों के बल पर गरीब मोपलाओं पर अपना नियंत्रण बढ़ा लिया। और यही नियंत्रण जब हद से अधिक होने लगा तो मोपला संगठित होकर हिंसा पर उतर बैठे। आम झड़प में दोनों गुटों के काफी संख्या में लोग मारे गए। दिसम्बर 1921 में ब्रिटिश सरकार द्वारा यह आंदोलन पूरी तरह से कुचल दिया गया।
एका आंदोलन
- अवध के किसानों ने साल 1921-22 के मध्य हरदोई, बहराइच, सुल्तानपुर, बाराबंकी और सीतापुर क्षेत्रों में एक आंदोलन चलाया जिसे एका आंदोलन कहा गया। एका आंदोलन का मुख्य कारण सरकार द्वारा किसानों पर अत्यधिक लगान थोपना और गैर कानूनी रूप से उनके खेत को छीनना था।
- एका आंदोलन के प्रमुख नेता मदारी पासी और सहरेब थे। यह आंदोलन मुख्यतः पासी और यादवों द्वारा चलाया गया था। जिसका उद्देश्य अपने हक की लड़ाई लड़ना था। ब्रिटिश सरकार जमींदारों की खुशी के लिए इस आंदोलन का भरसक प्रयास किया। इस आंदोलन का लक्ष्य था कि किसान सिर्फ उन्हीं हिस्से का लगान दें जो उचित हो। गैर कानूनी और दांव पेंच से अधिग्रहण की गई जमीन का लगान नहीं दिया जाए। बल्कि उन जमीनों को फिर से हासिल किया जाए जो सरकार ने जबरदस्ती छीनी है। बढ़े हुए लगान और निष्ठुर सरकार की नाराजगी ने एका आंदोलन को एकत्रित करने में सहायता की।
इस लेख में आपने भारत में हुए प्रमुख किसान आन्दोलन में से कुछ आन्दोलन के बारे में जाना | अगले लेख में हम भारत में हुए प्रमुख किसान आन्दोलन के बचे हुए किसान विद्रोहों के बारे में जानेंगे | आप हमे फेसबुक के THE GKJANKARI पेज पर फॉलो कर सकते हैं | ट्विटर – GKJANKARI
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शानदार जानकारी। अत्यंत ही सहज शब्दो मे सार बता दिया। परीक्षार्थियों के लिए अत्यंत उपयोगी